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स्व॒स्ति नो॑ मिमीताम॒श्विना॒ भगः॑ स्व॒स्ति दे॒व्यदि॑तिरन॒र्वणः॑। स्व॒स्ति पू॒षा असु॑रो दधातु नः स्व॒स्ति द्यावा॑पृथि॒वी सु॑चे॒तुना॑ ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svasti no mimītām aśvinā bhagaḥ svasti devy aditir anarvaṇaḥ | svasti pūṣā asuro dadhātu naḥ svasti dyāvāpṛthivī sucetunā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्व॒स्ति। नः॒। मि॒मी॒ता॒म्। अ॒श्विना॑। भगः॑। स्व॒स्ति। दे॒वी। अदि॑तिः। अ॒न॒र्वणः॑। स्व॒स्ति। पू॒षा। असु॑रः। द॒धा॒तु॒। नः॒। स्व॒स्ति। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। सु॒ऽचे॒तुना॑ ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:51» मन्त्र:11 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जन (अनर्वणः) अश्वरहित का (स्वस्ति) सुख (मिमीताम्) रचें और (भगः) ऐश्वर्य्य को करनेवाला वायु (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख (देवी) प्रकाशित (अदितिः) अखण्डविद्या (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख (सुचेतुना) उत्तम विज्ञापन से (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख और (पूषा) पुष्टि करनेवाला दुग्धादि पदार्थ और (असुरः) मेघ हम लोगों के लिये सुख को (दधातु) धारण करे, वैसे आप लोगों के लिये भी वे सुख को धारण करें ॥११॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य पदार्थविद्या से जिन पदार्थों को उपयुक्त करें अर्थात् काम में लावें, वे इनसे उपकार ग्रहण करने को समर्थ होवें ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाश्विनानर्वणः स्वस्ति मिमीतां भगो नः स्वस्ति देव्यदितिर्विद्या नः स्वस्ति सुचेतुना द्यावापृथिवी नः स्वस्ति पूषाऽसुरो नः स्वस्ति दधातु तथा युष्मभ्यमपि ते दधतु ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वस्ति) सुखम् (नः) अस्मभ्यम् (मिमीताम्) सृजेथाम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (भगः) ऐश्वर्य्यकर्त्ता वायुः (स्वस्ति) (देवी) देदीप्यमाना (अदितिः) अखण्डिता (अनर्वणः) अनश्वस्य (स्वस्ति) (पूषा) पुष्टिकरो दुग्धादिः (असुरः) मेघः (दधातु) (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्ति) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (सुचेतुना) सुष्ठु विज्ञापनेन ॥११॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः पदार्थविद्यया यान् पदार्थान् उपयुञ्जीरन् त एभ्य उपकारं ग्रहीतुं शक्नुयुः ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे पदार्थविद्येद्वारे ज्या पदार्थांचा उपयोग करतात ती त्यांचा उपयोग करून घेण्यास समर्थ असतात. ॥ ११ ॥